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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

उनके तस्वीर को अपने सीने से लगाये बैठे है

उनके आने की ख़ुशी में एक आस लगाये बैठे है
उनके तस्वीर को अपने सीने  से लगाये बैठे  है
ना वो आये न उनकी कोई भनक लगी
मिलने की चाहत एक कसक सी लगी
अपने जज्बात को यूँ ही
सीने में दबाये बैठे है
उनके तस्वीर को अपने
सीने से लगाये बैठे  है
अब तो आलम ये है कि नींद भी नहीं आती है
क्या करे अपनी फूटी तक़दीर नजर आती है
गिला औरों से क्या जब अपनों से ही खता खाए बैठे है
उनके तस्वीर को अपने
सीने से लगाये बैठे  है
खता हमारी थी जो हमने उनसे प्यार किया
बुरा किया जो हसीनाओं पे ऐतबार किया
बेवफा दुनियां में अपना सब कुछ लुटा बैठे है
उनके तस्वीर को अपने
सीने से लगाये बैठे  है

शनिवार, 19 नवंबर 2011

याद जब तेरी आती है तो आँखे नम हो जाती है

याद जब तेरी आती है तो आँखे नम हो जाती है
ढूढती है हर तरफ मगर दीदार नहीं कर पाती है
यादों के सहारे तो जिंदगी का सफ़र कटता नहीं
क्या करे ये दिल में जो दर्द है वो मिटता नहीं
चकाचौंध भरी दुनिया में रूह शुकून नहीं पाती हैं
याद जब तेरी आती है तो आँखे नम हो जाती है
वक्त के मरहम ने हर जख्म को भर दिया है
एक आम को बनाकर एक खास कर दिया है
सोना है गहरी नींद में पर रात कम हो जाती है
याद जब तेरी आती है तो आँखे नम हो जाती है
अब तो फ़साना बन गया है बस यादें ही बाकी है
डूबती हुई नैया को तिनके का सहारा काफी है
उजड़े हुए चमन में सावन का आना बाकी है
याद जब तेरी आती है तो आँखे नम हो जाती है

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

वो दिन आप को याद कैसे दिलाये

वो दिन आप को याद कैसे दिलाये
घर से निकलना और कुछ दूर जाना
तेरा फिर चुपके से पीछे से आना
पेड़ों के झुरमुट में बैठते थे हम तुम
सारे के सारे दुःख अपने हो जाते थे गुम
यही वो जगह है जहाँ हम मिले थे
यही वो जगह हैं, यही वो फिजायें
तुमने कहा था गले से मुझको लगाकर
सदा के लिए हम एक हो गए है
कहा था मेरा हाथ हाथों में लेकर
जुदा हम हुए तो करेंगे क्या जीकर
इन्हें हम भला, किस तरह भूल जाए
यही वो जगह हैं, यही वो फिजायें

बुधवार, 9 नवंबर 2011

हम भी प्यार के दीवाने है

एक कसक जो दिल के आगोश में सिसक रही थी
कह न पाए उनसे की हम भी प्यार के दीवाने है
एक मुद्दत से चाहा था जिनको हमसफ़र के लिए
आज वो कहते है की झूठे ये सब अफसाने है
लोग कहते है की प्यार तो खुद अपने में अधुरा है
ये तो हसीनाओं के खेलने के एक बहाने है
वे क्या समझेंगे प्यार का क्या मतलब होता है
इसको तो जानने में ही लगे कितने ज़माने है
दिल तोडना और खेलना तो कोई उनसे सीखे
जो कहते है की अभी और भी आशिक बनाने है
मेरी आशिकी का क्या सिला दिया है उन्होंने
ये तो बस अब सारे आशिकों को बताने है

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

इस दिवाली पर क्या लिखूं

कुछ दिन से मै सोच रहा हूँ
इस दिवाली पर क्या लिखूं i
महगाईं की मार लिखूं या
लोग पोछते पसीने की बुँदे
खड़े राशन की कतार लिखूं ii
भ्रस्टाचार या ब्यभिचार लिखूं
मानव बन गया है दानव
रावण का अवतार लिखूं ii
बच्चो का बिलखना और रोना
क्या भूखे पेट का सवाल लिखूं
फटे आँचल में से झाकती
माँ की आबरू का हाल लिखूं
दो - दो दिन बिन पानी के कैसे
गुजरे है वो सुबह शाम लिखूं
राजनीती की गन्दी सोच में
होते है जो वो काम लिखूं
नेता आये, आकर चले गए
वादे करके मुकर गए
फिर भी वोट तो उनका ही है
क्या जनता का व्यवहार लिखूं
बैठ सियासत की कुर्सी पर
मनमानी उनकी बढती गयी
जेब भरी और घर भर दिए
भरा उनका दरबार लिखूं
इतना होने पर भी अपना
भारत देश हमारा है
खुली आखो से देख तमाशा
अपना भारत देश महान लिखूं





सब कही न कही साथ छोड़ जाते है

किसी की दास्ताँ को लफ़्ज़ों में बयां करते है,
न जाने उन पर अब क्या सितम गुज़रते  है !
ख़ुशी के आंसू  भी एक ग़म की तरह होते है,
हर दिल में इक दर्द के जो कारण बनते है,
इक शायर की कलम दर्द की जुबान होती है,
हर लफ्ज़ को पिरोकर ग़ज़ल का रूप करते है,
न जाने हम क्यों लिखने पे मजबूर हो जाते है,
जब यही दर्द हद से गुज़र जाया करते है
ये मंजिल सबको किसी न किसी का दर्द सुनाती है,
ये आंसू ही तो है जो अनायास ही आँखों से छलक जाते है,
मानो ये कहानी अब हम सब पे लागू होती है,
मंजिल के सफ़र में सब कही न कही साथ छोड़ जाते है,

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

दिल के आँगन में कोई आया है

आज फिर से अपने आप को पुरानी राहों में पाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है
सपनों की दुनियां में जहाँ दो परवाने बसते थे
खिलते थे फूल वहां पर और कलियाँ चहकते थे
साथ में अपने वो बहारें आज फिर से लाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है 
उसके आने से खिल गयी जीवन की हर कली
सांसों में ऐसी खुशबू जैसे मुझे थी पहले मिली
भीगी जुल्फों में से जैसे आज सावन आया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है
नशा उसकी आँखों का था ऐसा आज तक उतरा नहीं
सारे मयखाने में उस नशे का एक बूंद का कतरा नहीं
उसे पाकर मैंने दुनियाँ की जैसे सारी जन्नत पाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

गुनाह किये जाते है

आँखों के कोर से जो निकल कर मेरे आंसू
जब कपोल से लुढ़क कर मुख पर आते है
तो मानो कोई झरना ऊंची कंदराओं में से
बहकर सीधा अपने नदी से मिल जाते है
और यही आंसुओं के कुछ बूंद मिलकर
उस कड़वे स्वाद कि याद दिला जाते है
जो तुने दिए थे मुझे, और खून के आंसू
खुद आज अपने आप ही पिये जाते है
अब तो ऐसी हालत में बस रोना ही है
जो नहीं जानते प्यार वो भी किये जाते है
तेरा दिया हुआ जख्म नासूर न बन जाये
यही सोच कर उस जख्म को सिये जाते है
नादान है वो क्या जाने कि तड़प क्या होती है
और जानकर भी हम ये गुनाह किये जाते है

सोमवार, 26 सितंबर 2011

कहाँ तक जाओगे

जाओ, जा जा के कहाँ तक जाओगे
आखिर थक कर चूर हो जाओगे
तिनके का सहारा कहीं न पाओगे
तब लौट कर वापस यहीं आओगे
तेरे खातिर ये मुहब्बत निशार कर दूँ
दिल में कोई हसरत हो तो तार-तार कर दूँ
अपने दिल के आईने में किसी को न लाओगे
इतना ज्यादा तुम मुझसे प्यार पाओगे
ना जाओ दूर तुम यूँ मेरा होने के बाद
ना सह सकेंगे तेरा गम तुझे खोने के बाद
पल पल तुम्ही मेरी यादों में आओगे
कसम है तुम्हे मेरी जो तुम जाओगे
आपको पाकर अब खोना नहीं चाहते ,
इतना खुश होकर अब रोना नहीं चाहते
यूँ तो बहुत कुछ है ज़िन्दगी में ,
सिर्फ जिसे चाहते है उसे खोना नहीं चाहते

बुधवार, 21 सितंबर 2011

असर

होने लगा है असर धीरे धीरे
हुई शाम अब सुबह से धीरे धीरे
ना मंजिल थी ना हमसफ़र साथ मेरा
छोड़ गया वो इस कदर साथ मेरा
हो गयी है नीचे अब नजर धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे
जहाँ से चला था कारवां साथ मेरे
आया था वो भी कुछ दूर साथ मेरे
मझधार में  छुटेगी पतवार धीरे धीरे
ना मालूम था होगा उससे सबर धीरे धीरे
किनारा तो मिलना बहुत दूर था
पर मेरा यार कितना मजबूर था
मेरा साथ छोड़ा इस कदर धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे
आज ना मै हूँ ना मेरी कोई पहचान है
एक जिन्दा लाश हूँ जिसमे ना जान है
दफ़न हो गया "राज" कबर में धीरे धीरे
होने लगा है असर धीरे धीरे

तन्हाई

जब भी उसको तन्हाई में मेरी याद आएगी
प्यारी सी मुस्कान उसके चेहरे पे झलक आएगी
देखेगी मेरी तस्बीर को गौर से साकी
रो रो कर सिने से फिर लगाएगी
देखेगी जहाँ जहाँ मेरी निशानी को
अपने आँचल में छुपाती नजर आएगी
बीते हुए दिन की बीती हुई कहानी
अपने सखियों से कहती नजर आएगी
जब खुद को आईने के सामने पायेगी
अपनी उस छोटी सी भूल पे बहुत पछताएगी
चाहकर भी आज मेरे उन हसीं पलों के
"राज" दिल से जुबान पर ना ला पायेगी

शनिवार, 17 सितंबर 2011

सपनो की दुनिया

सुबह सुबह जब नींद से जागा
उठ कर बैठ गया बिस्तर पर
बेल बजी तब दरवाजे की
नींद हो गयी थी रफू चक्कर
बेमन से दरवाजा खोला
बंद थे नयन धीरे से बोला
कौन हो तुम और कहाँ से आये हो
कच्ची नींद में हमको जगाये हो
वो बोला की नाम डाकिया
डाक घर से आया हूँ
प्रियतम का शंदेशा तुम्हरा
दूर देश से लाया हूँ
सुनकर बात उस डाकिये की
मन में लड्डू फूट पड़ा
छीन कर  लेटर उसके हाथ से
ख़त पढने को टूट पड़ा
पढता ही गया रोता ही रहा
प्रेम पत्र में मशगुल रहा
याद आया वो आज पुराना
यार था मेरा मै भूल रहा
सुनकर उसकी शादी का हाल
दिल के टुकड़े हज़ार हुए
आज हम उसके खातिर
क्या इतने बेकार हुए
सोचा था मै कुछ और लेकिन कुछ और हो गया
सपनो की दुनिया में फिर से "राज" खो गया

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

तलब

तलब एक चीज है ऐसी
नशा उसमे भरा होता है
कहाँ हूँ और कौन हूँ मै
इसका कहाँ पता होता है
अजीब सी इसमे कशिश होती है
नशा की कई प्रजाति होती है
सब अपने अपने नशे में मस्त है
जिसे देखो सब के सब लस्त पस्त है
किसी को नफ़रत का नशा
किसी को  प्यार का
किसी को जीत का नशा
किसी को हार का
कोई बड़ा हो या छोटा हो
पतला हो या मोटा हो
सब पे नशा इस कदर छाया है
कही धुप है तो कही छाया है
बड़े बूढ़े कह गए की एक नशा जरूरी है
आज यही नशा हमारी मजबूरी है
नशे में हम आज कितने चूर है
हम अपनों से आज कितने दूर है
नशा छोडो यारों और जीवन सफल बनाओ
इस "राज" को  यारों अब तो समझ जाओ

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

इंतज़ार

आज भी तेरा इंतज़ार किया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है
ख़ुशी के वो पल जो बिताये तेरे दामन में
वो हंसी के ठहाके जो लगे तेरे आँगन में
आज उस मदहोशी का एहसास किया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है
तेरे बदन की खुशबू में रमा है मेरा मन
तू ही मेरे दिल में है और तू ही मेरी धड़कन
जुदा होके तुझसे ना जाने कैसे जिया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है
दर्द होता है क्या ये हमको मालूम न था
ऐसा आएगा वक्त हमको मालूम न था
आज उन्ही जख्मों को हम सिया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है
खायी थी कसमे निभाई थी रस्मे
दिल हुआ तेरा किसी और के बस में
उस बेवफा की याद में हम पिया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है
देखने को तो सारा जहाँ हमने देखा
जो देखा था वो हमने आज कहाँ देखा
तेरे "राज" का इम्तहान लिया करते है
बीते हुए लम्हों को याद किया करते है

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

काबिल

तेरा प्यार किसी के काबिल ही नहीं
फूलों ने महकना छोड़ दिया
चिड़ियों ने चहकना छोड़ दिया
बुलबुल ने गाना छोड़ दिया
तुने जब से आना छोड़ दिया
मजधार में अटकी नैया का
जैसे कोई साहिल ही नहीं
तेरा प्यार किसी के काबिल ही नहीं
रात कटती रही तारे हँसते रहे
लोग सोते रहे हम तरसते रहे
आँख रोती रही आसूं बहते रहे
मौत आई लेकिन हम ये कहते रहे
उस दीवानी को ना सताओ मेरे दोस्तों
इस दीवाने का ये तो कातिल ही नहीं
तेरा प्यार किसी के काबिल ही नहीं
मेरा निकला जनाज़ा बड़े शान से
डोली भी उठी उसकी सीना तान के
"राज" दिल में था उसको बताया नहीं
प्यार क्या है ए मुझसे जताया नहीं
तू जिस डगर पर चली मेरी दिलरुबा
वो मेरी राह की मंजिल ही नहीं
तेरा प्यार किसी के काबिल ही नहीं

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सुख

हम में से बहुत से लोग होते है जो की मन ही मन में हर इंन्द्रीय सुख को "सुखी" जीवन से जोड़ते हैं। लेकिन सुख केवल इंद्रिय विषयक नहीं है.
सुख और दुख भी हमारे मन की कल्पना मात्र है। अक्सर देखा जाता है की ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि वे तब और आनंद से रह पाते या उनका जीवन और ज्यादा सुखमय होता या खुद को सौभाग्यशाली मानते, जब उनके पास अमुक अमुक वस्तुएं होतीं। थोड़ी सा पैसा और होता या थोडा सा समय और मिल जाता तो ज्यादा सुखी होते। जबकि सच यह है कि जब हमारी आकांक्षाएं, लालसाएं और ऐसे दिखावे बढ़ते जाते हैं तो असंतोष ज्यादा बढ़ता है। यदि सुख और आनंद अपने अंदर नहीं मिल सकता तो यह कहीं भी और कभी नहीं मिल सकता। बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो हर स्थिति में दृढ़ रहता है और मौजूदा स्थितियों में ही आनंद ढूंढता है। जितना ग्रहण करने की इच्छा होती है, उतना ही दुख होता है। प्राप्त न हो तो दुख होता है। बहुत अधिक प्राप्त न हो तब इसका दुख होता है। कोई वस्तु प्राप्त होकर नष्ट हो जाए तब भी दुख होता है। जो दूसरों के पास है, हमारे पास क्यों नहीं है, यह सोचकर हम दुखी हो जाते है। जो मेरे पास है, वह दूसरों के पास भी हो तो तब भी दुख होता है। असल में, संतोष के अभाव के कारण हमारा जीवन दुखमय है। अगर संतोष नामक धन इंसान के पास हो तो वह सबसे धनवान हो जाता है/ किसी लेखक की लेखनी आज स्पष्ट रूप से यथार्थ होती हुई दिख रही है,

“गोधन, गजधन, बाजधन और रतन-धन खान
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान
........................

बुधवार, 17 अगस्त 2011

गुनाह

सुना था की खुशियों के चमन की कल्पना हर इंसान करता है
हम भी इस ख़ुशी में शरीक हुए तो क्या गुनाह किया
इस भरी दुनियां में हर दर पे सरों को झुकते हुए देखा है
हमने रब से सर- ए -ताज की तम्मना की तो क्या गुनाह किया
हर कोई दिल में एक नफ़रत की आग लिए बैठा नजर आता है
इस जख्म- ए -दिल के लिए प्यार की दुआ की तो क्या गुनाह किया
उम्र भर बेगानों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझते रह गए
ख्वाब में खुद के लिए गर दुआ निकली तो क्या गुनाह किया
सारा आलम अपने राज को सरेआम किये बैठा है
"राज" ने राज को राज ही रहने दिया तो क्या गुनाह किया

परदेश

तुझको कैसे समझाउं,
झूठी आशा कैसे दिलाऊ
मै किस भेष में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
आया जब संदेशा उसका
पढ़ ना पाया हाल उसका
रुंधे गले से आवाज न निकली
यांदों कि आगोश में हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
रो रो के दिल अपना तुमने
हल्का तो कर लिया होगा
रो भी नहीं सका मै खुल के
क्योंकि मै बे -होश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
कसक उठी मेरे मन में एक
सपनों में पाया तुझको देख
लौट कर भी आ नहीं सकता
मै एक अंदेश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
ना कर मजबूर मेरी "जान"
कहना मेरा ले तू मान
तू है परेशां वहां पे
तो यहाँ खुश मै भी नहीं हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
सात समन्दर पार से
एक दिन वापस आऊंगा
खुशियाँ मिलकर बाटेंगे
तब मै यह कहूँगा कि
मै अपने देश में हूँ

गुनाह

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

आँखें......

ये आँखें बोलती हैं
सच को झूठ
झूठ को सच
सबको आँखे तोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
ग़म के हों कितने भी बादल
या ख़ुशी के हो सुनहरे पल
सारे जज्बात को अन्दर रखकर
नयन पटों को खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
कोई रोक ले चाहे दरिया का पानी
बाँधी ना जाये आंसुओं की रवानी
मन ही मन में बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
डुबकी लगा के गहराई थहा लो
ये झील है पानी का इसमें नहा लो
देखो फिर कैसे झूठ बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
कोई न जाना की इसमें छुपा क्या है
जुबां इनकी क्या है और भाषाएं क्या है
भेद दिलों का सबके
दो पल में खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं 

खुली आँखों में कई बंद राज होते है 
एक हंसी "राज" को बरबस यूँ ही 
अपने आस-पास टटोलती है
ये आँखें बोलती हैं

चाँद का चेहरा

देखा आज चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा i
नित- नित नए रूप में आता
सबके मन को हरदम भाता
कभी बड़ा बन कर आ जाता
कभी लघु रूप भी अपनाता
बड़ा सलोना चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा ii
बच्चो को भी हरदम भाए
बूढों को वह डगर दिखाए
विरह  की काली रात में भी
अपनों की भी याद दिलाये
ऐसा है ये चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iii
कभी पतली सी काली रेखा
कभी- कभी  न किसी ने  देखा
कभी गोला कभी वक्र बनाकर
कभी अर्ध में ही जाते देखा
सपनों में है एक  राजा चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iv

झलक

हमारी गली में भी आया करो
सनम इस कदर न सताया करो
यही फुरसतों का तकाजा है अब भी
गजल तुम मेरी गुनगुनाया करो
तुम्हे देखकर हम भी जिन्दा रहे
तरस हम गरीबों पे खाया करो
माना तुम्हे भी है डर दुनिया का
मगर इतना सितम भी ना ढाया करो
करेंगे इशारों- इशारों में बातें
कुछ भी जुबाँ पर ना लाया करो
बहारें आती है सावन में दिलबर

दिए की तरह न जलाया करो
रह जाए प्यासी न अधूरी कहानी
झूठी कसम तुम ना खाया करो
दिल-ये- हाल कुछ भी गंवारा नहीं है
रोज़ एक झलक अपनी दे जाया करो

सोमवार, 15 अगस्त 2011

खिलौना टूट गया....................

मुझे जब से मिला था प्यार तेरा
जीने की तम्मना जाग उठी थी
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
पापा ने खेला कांच समझकर
जस का तस रख दिया सहजकर
उनसे भी तो साथ मेरा बचपन में ही छुट गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
मम्मी ने खेला अपने दिल का
एक टुकड़ा था मै, उनका समझ कर
आई जवानी तो पतझड़ की तरह
सावन भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
तुने ( प्रेमी ने ) खेला एक खेल समझ कर
खेला और खेला, फिर मारी ठोकर
फिर भी नहीं  मालूम हुआ की
मेरा रब भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
"राज " का खिलौना टूट गया

दिल की लगी...................

दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ    
तडपता है दिल ये तेरी याद बनकर i
रोता है मजबूर औ बेकार बनकर ii
वही राज में आज बताने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
मालूम न था की ऐसा भी होगा i
मेरा दिल मुझसे जुदा भी तो होगा ii
नफ़रत की लौ मै जलाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
होती है क्यों प्यार में रुसवाई i
होने के पहले ये मौत क्यों न आई ii
मोहब्बत की अर्थी सजाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
ये दुनिया वालों कभी न प्यार करना i
घुट-घुट के जीना है और  इसमें मरना ii
मोहब्बत का मातम मानाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

चेहरा

आज बहुत थक सा गया हूँ
ना जाने कितने रूप में 
छाँव में और धुप में
पहन पहन कर
बदल बदल कर
अपनों में ही खो गया हूँ
पागल सा मै हो गया हूँ  
अब तो मै क्या हूँ
और था मै क्या पहले,
कुछ भी तो याद नहीं है 
दुनिया के इस रंग मंच पे 
कितने किरदारों का
चोला मैंने पहना है
नित नई कहानी नया सबेरा 
नया मुखौटा पहना है
आज लौटना चाहा अपने
असली वाले चोले  में 
लौट न पाया यही रह गया
अपने बनाये झमेले में
कभी देखता मै आईने में
तो देख के उसमे इस चेहरे को  
पता नहीं ये कौन है कैसा 
किसका नया ये जामा है
 मेरा चेहरा कैसा था 
अब तो यह भी याद नहीं
जैसे रेतों के भव्य इमारत 
की कोई बुनियाद नहीं








दिखावा.....

दिखावा..... 
आप इस शीर्षक को देखकर चौकिये मत, इस दिखावा नाम के रोग से सब पीड़ित है..... चाहे कोई किसी भी तबके का हो या गरीब हो या आमिर , छोटा हो या बड़ा, यह रोग सब के अन्दर इस तरह से घर किये हुए है की आप जान बूझकर इसका इलाज नहीं करवा सकते, और दूसरी बात ये भी आप जानते है की ये रोग बहुत ही साधारण है और इसका इलाज संभव है फिर भी आप इसे नजर अंदाज कर देते हो, मिसाल  के तौर पर आप लोगो के बिच में से ही एक को ले लेते है.............आप और आपके दूर के दोस्त एक दिन चाय की दुकान पर जाते हो , वहां आप लोग चाय पान कर रहे होते हो, अचानक एक विशिस्ट व्यक्ति अपनी मोटर सायकल लेकर वहां से गुजरता है , यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी है की वह विशिस्ट शायद ही आपको जानता हो या पहचानता हो, लेकिन आप उसको जानते हो न की पहचानते हो, आप तुरंत बड़े स्टाइल से उस व्यक्ति को नमस्कार करते हो , जैसे की आप और वो बहुत गहरे दोस्त हो, और उस तरफ वो अपनी बुलेट पर से ही थोडा गर्दन को झुका कर आपके अभिवादन को स्वीकार करता है तो आपकी चौड़ी छाती ३२ से बढ़कर ३८ की हो जाती है और ये आप अपने दूर के दोस्त को दिखाने के लिए ही सब करते हो , जब की वास्तविकता से इसका कुछ लेना देना नहीं है ऐसा होता है दिखावे का रोग जो सब में होता है आमिर, गरीब ,छोटा, बड़ा, तो इस रोग का असर तो थोडा बहुत दीखता है भाई...........................​........................

याद आई है

आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है
तेरा आना और कानों में कोई
नए सुर  की लहर दे जाना
आखों में तेरा वो खिला चेहरा
साया बनकर रूप तेरा लायी है
तेरे होठों के लरजते पट पर
वो हंसी और वो सवरते गेशु
आज काली घटा बनकर छाई है
वो बनना सवरना और मन को लुभाना
रूठी हो सजनी तो बाँहों में भरकर
हंसी ख्वाब बनकर रातों में आई है
आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है