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शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

तलब

तलब एक चीज है ऐसी
नशा उसमे भरा होता है
कहाँ हूँ और कौन हूँ मै
इसका कहाँ पता होता है
अजीब सी इसमे कशिश होती है
नशा की कई प्रजाति होती है
सब अपने अपने नशे में मस्त है
जिसे देखो सब के सब लस्त पस्त है
किसी को नफ़रत का नशा
किसी को  प्यार का
किसी को जीत का नशा
किसी को हार का
कोई बड़ा हो या छोटा हो
पतला हो या मोटा हो
सब पे नशा इस कदर छाया है
कही धुप है तो कही छाया है
बड़े बूढ़े कह गए की एक नशा जरूरी है
आज यही नशा हमारी मजबूरी है
नशे में हम आज कितने चूर है
हम अपनों से आज कितने दूर है
नशा छोडो यारों और जीवन सफल बनाओ
इस "राज" को  यारों अब तो समझ जाओ