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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

सब कही न कही साथ छोड़ जाते है

किसी की दास्ताँ को लफ़्ज़ों में बयां करते है,
न जाने उन पर अब क्या सितम गुज़रते  है !
ख़ुशी के आंसू  भी एक ग़म की तरह होते है,
हर दिल में इक दर्द के जो कारण बनते है,
इक शायर की कलम दर्द की जुबान होती है,
हर लफ्ज़ को पिरोकर ग़ज़ल का रूप करते है,
न जाने हम क्यों लिखने पे मजबूर हो जाते है,
जब यही दर्द हद से गुज़र जाया करते है
ये मंजिल सबको किसी न किसी का दर्द सुनाती है,
ये आंसू ही तो है जो अनायास ही आँखों से छलक जाते है,
मानो ये कहानी अब हम सब पे लागू होती है,
मंजिल के सफ़र में सब कही न कही साथ छोड़ जाते है,

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