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मंगलवार, 16 अगस्त 2011

आँखें......

ये आँखें बोलती हैं
सच को झूठ
झूठ को सच
सबको आँखे तोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
ग़म के हों कितने भी बादल
या ख़ुशी के हो सुनहरे पल
सारे जज्बात को अन्दर रखकर
नयन पटों को खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
कोई रोक ले चाहे दरिया का पानी
बाँधी ना जाये आंसुओं की रवानी
मन ही मन में बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
डुबकी लगा के गहराई थहा लो
ये झील है पानी का इसमें नहा लो
देखो फिर कैसे झूठ बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
कोई न जाना की इसमें छुपा क्या है
जुबां इनकी क्या है और भाषाएं क्या है
भेद दिलों का सबके
दो पल में खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं 

खुली आँखों में कई बंद राज होते है 
एक हंसी "राज" को बरबस यूँ ही 
अपने आस-पास टटोलती है
ये आँखें बोलती हैं

चाँद का चेहरा

देखा आज चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा i
नित- नित नए रूप में आता
सबके मन को हरदम भाता
कभी बड़ा बन कर आ जाता
कभी लघु रूप भी अपनाता
बड़ा सलोना चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा ii
बच्चो को भी हरदम भाए
बूढों को वह डगर दिखाए
विरह  की काली रात में भी
अपनों की भी याद दिलाये
ऐसा है ये चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iii
कभी पतली सी काली रेखा
कभी- कभी  न किसी ने  देखा
कभी गोला कभी वक्र बनाकर
कभी अर्ध में ही जाते देखा
सपनों में है एक  राजा चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iv

झलक

हमारी गली में भी आया करो
सनम इस कदर न सताया करो
यही फुरसतों का तकाजा है अब भी
गजल तुम मेरी गुनगुनाया करो
तुम्हे देखकर हम भी जिन्दा रहे
तरस हम गरीबों पे खाया करो
माना तुम्हे भी है डर दुनिया का
मगर इतना सितम भी ना ढाया करो
करेंगे इशारों- इशारों में बातें
कुछ भी जुबाँ पर ना लाया करो
बहारें आती है सावन में दिलबर

दिए की तरह न जलाया करो
रह जाए प्यासी न अधूरी कहानी
झूठी कसम तुम ना खाया करो
दिल-ये- हाल कुछ भी गंवारा नहीं है
रोज़ एक झलक अपनी दे जाया करो