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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

चेहरा

आज बहुत थक सा गया हूँ
ना जाने कितने रूप में 
छाँव में और धुप में
पहन पहन कर
बदल बदल कर
अपनों में ही खो गया हूँ
पागल सा मै हो गया हूँ  
अब तो मै क्या हूँ
और था मै क्या पहले,
कुछ भी तो याद नहीं है 
दुनिया के इस रंग मंच पे 
कितने किरदारों का
चोला मैंने पहना है
नित नई कहानी नया सबेरा 
नया मुखौटा पहना है
आज लौटना चाहा अपने
असली वाले चोले  में 
लौट न पाया यही रह गया
अपने बनाये झमेले में
कभी देखता मै आईने में
तो देख के उसमे इस चेहरे को  
पता नहीं ये कौन है कैसा 
किसका नया ये जामा है
 मेरा चेहरा कैसा था 
अब तो यह भी याद नहीं
जैसे रेतों के भव्य इमारत 
की कोई बुनियाद नहीं








दिखावा.....

दिखावा..... 
आप इस शीर्षक को देखकर चौकिये मत, इस दिखावा नाम के रोग से सब पीड़ित है..... चाहे कोई किसी भी तबके का हो या गरीब हो या आमिर , छोटा हो या बड़ा, यह रोग सब के अन्दर इस तरह से घर किये हुए है की आप जान बूझकर इसका इलाज नहीं करवा सकते, और दूसरी बात ये भी आप जानते है की ये रोग बहुत ही साधारण है और इसका इलाज संभव है फिर भी आप इसे नजर अंदाज कर देते हो, मिसाल  के तौर पर आप लोगो के बिच में से ही एक को ले लेते है.............आप और आपके दूर के दोस्त एक दिन चाय की दुकान पर जाते हो , वहां आप लोग चाय पान कर रहे होते हो, अचानक एक विशिस्ट व्यक्ति अपनी मोटर सायकल लेकर वहां से गुजरता है , यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी है की वह विशिस्ट शायद ही आपको जानता हो या पहचानता हो, लेकिन आप उसको जानते हो न की पहचानते हो, आप तुरंत बड़े स्टाइल से उस व्यक्ति को नमस्कार करते हो , जैसे की आप और वो बहुत गहरे दोस्त हो, और उस तरफ वो अपनी बुलेट पर से ही थोडा गर्दन को झुका कर आपके अभिवादन को स्वीकार करता है तो आपकी चौड़ी छाती ३२ से बढ़कर ३८ की हो जाती है और ये आप अपने दूर के दोस्त को दिखाने के लिए ही सब करते हो , जब की वास्तविकता से इसका कुछ लेना देना नहीं है ऐसा होता है दिखावे का रोग जो सब में होता है आमिर, गरीब ,छोटा, बड़ा, तो इस रोग का असर तो थोडा बहुत दीखता है भाई...........................​........................

याद आई है

आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है
तेरा आना और कानों में कोई
नए सुर  की लहर दे जाना
आखों में तेरा वो खिला चेहरा
साया बनकर रूप तेरा लायी है
तेरे होठों के लरजते पट पर
वो हंसी और वो सवरते गेशु
आज काली घटा बनकर छाई है
वो बनना सवरना और मन को लुभाना
रूठी हो सजनी तो बाँहों में भरकर
हंसी ख्वाब बनकर रातों में आई है
आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है