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शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सुख

हम में से बहुत से लोग होते है जो की मन ही मन में हर इंन्द्रीय सुख को "सुखी" जीवन से जोड़ते हैं। लेकिन सुख केवल इंद्रिय विषयक नहीं है.
सुख और दुख भी हमारे मन की कल्पना मात्र है। अक्सर देखा जाता है की ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि वे तब और आनंद से रह पाते या उनका जीवन और ज्यादा सुखमय होता या खुद को सौभाग्यशाली मानते, जब उनके पास अमुक अमुक वस्तुएं होतीं। थोड़ी सा पैसा और होता या थोडा सा समय और मिल जाता तो ज्यादा सुखी होते। जबकि सच यह है कि जब हमारी आकांक्षाएं, लालसाएं और ऐसे दिखावे बढ़ते जाते हैं तो असंतोष ज्यादा बढ़ता है। यदि सुख और आनंद अपने अंदर नहीं मिल सकता तो यह कहीं भी और कभी नहीं मिल सकता। बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो हर स्थिति में दृढ़ रहता है और मौजूदा स्थितियों में ही आनंद ढूंढता है। जितना ग्रहण करने की इच्छा होती है, उतना ही दुख होता है। प्राप्त न हो तो दुख होता है। बहुत अधिक प्राप्त न हो तब इसका दुख होता है। कोई वस्तु प्राप्त होकर नष्ट हो जाए तब भी दुख होता है। जो दूसरों के पास है, हमारे पास क्यों नहीं है, यह सोचकर हम दुखी हो जाते है। जो मेरे पास है, वह दूसरों के पास भी हो तो तब भी दुख होता है। असल में, संतोष के अभाव के कारण हमारा जीवन दुखमय है। अगर संतोष नामक धन इंसान के पास हो तो वह सबसे धनवान हो जाता है/ किसी लेखक की लेखनी आज स्पष्ट रूप से यथार्थ होती हुई दिख रही है,

“गोधन, गजधन, बाजधन और रतन-धन खान
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान
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बुधवार, 17 अगस्त 2011

गुनाह

सुना था की खुशियों के चमन की कल्पना हर इंसान करता है
हम भी इस ख़ुशी में शरीक हुए तो क्या गुनाह किया
इस भरी दुनियां में हर दर पे सरों को झुकते हुए देखा है
हमने रब से सर- ए -ताज की तम्मना की तो क्या गुनाह किया
हर कोई दिल में एक नफ़रत की आग लिए बैठा नजर आता है
इस जख्म- ए -दिल के लिए प्यार की दुआ की तो क्या गुनाह किया
उम्र भर बेगानों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझते रह गए
ख्वाब में खुद के लिए गर दुआ निकली तो क्या गुनाह किया
सारा आलम अपने राज को सरेआम किये बैठा है
"राज" ने राज को राज ही रहने दिया तो क्या गुनाह किया

परदेश

तुझको कैसे समझाउं,
झूठी आशा कैसे दिलाऊ
मै किस भेष में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
आया जब संदेशा उसका
पढ़ ना पाया हाल उसका
रुंधे गले से आवाज न निकली
यांदों कि आगोश में हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
रो रो के दिल अपना तुमने
हल्का तो कर लिया होगा
रो भी नहीं सका मै खुल के
क्योंकि मै बे -होश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
कसक उठी मेरे मन में एक
सपनों में पाया तुझको देख
लौट कर भी आ नहीं सकता
मै एक अंदेश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
ना कर मजबूर मेरी "जान"
कहना मेरा ले तू मान
तू है परेशां वहां पे
तो यहाँ खुश मै भी नहीं हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
सात समन्दर पार से
एक दिन वापस आऊंगा
खुशियाँ मिलकर बाटेंगे
तब मै यह कहूँगा कि
मै अपने देश में हूँ

गुनाह

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

आँखें......

ये आँखें बोलती हैं
सच को झूठ
झूठ को सच
सबको आँखे तोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
ग़म के हों कितने भी बादल
या ख़ुशी के हो सुनहरे पल
सारे जज्बात को अन्दर रखकर
नयन पटों को खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
कोई रोक ले चाहे दरिया का पानी
बाँधी ना जाये आंसुओं की रवानी
मन ही मन में बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
डुबकी लगा के गहराई थहा लो
ये झील है पानी का इसमें नहा लो
देखो फिर कैसे झूठ बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
कोई न जाना की इसमें छुपा क्या है
जुबां इनकी क्या है और भाषाएं क्या है
भेद दिलों का सबके
दो पल में खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं 

खुली आँखों में कई बंद राज होते है 
एक हंसी "राज" को बरबस यूँ ही 
अपने आस-पास टटोलती है
ये आँखें बोलती हैं

चाँद का चेहरा

देखा आज चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा i
नित- नित नए रूप में आता
सबके मन को हरदम भाता
कभी बड़ा बन कर आ जाता
कभी लघु रूप भी अपनाता
बड़ा सलोना चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा ii
बच्चो को भी हरदम भाए
बूढों को वह डगर दिखाए
विरह  की काली रात में भी
अपनों की भी याद दिलाये
ऐसा है ये चाँद का चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iii
कभी पतली सी काली रेखा
कभी- कभी  न किसी ने  देखा
कभी गोला कभी वक्र बनाकर
कभी अर्ध में ही जाते देखा
सपनों में है एक  राजा चेहरा
कितना प्यारा  चाँद का चेहरा iv

झलक

हमारी गली में भी आया करो
सनम इस कदर न सताया करो
यही फुरसतों का तकाजा है अब भी
गजल तुम मेरी गुनगुनाया करो
तुम्हे देखकर हम भी जिन्दा रहे
तरस हम गरीबों पे खाया करो
माना तुम्हे भी है डर दुनिया का
मगर इतना सितम भी ना ढाया करो
करेंगे इशारों- इशारों में बातें
कुछ भी जुबाँ पर ना लाया करो
बहारें आती है सावन में दिलबर

दिए की तरह न जलाया करो
रह जाए प्यासी न अधूरी कहानी
झूठी कसम तुम ना खाया करो
दिल-ये- हाल कुछ भी गंवारा नहीं है
रोज़ एक झलक अपनी दे जाया करो

सोमवार, 15 अगस्त 2011

खिलौना टूट गया....................

मुझे जब से मिला था प्यार तेरा
जीने की तम्मना जाग उठी थी
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
पापा ने खेला कांच समझकर
जस का तस रख दिया सहजकर
उनसे भी तो साथ मेरा बचपन में ही छुट गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
मम्मी ने खेला अपने दिल का
एक टुकड़ा था मै, उनका समझ कर
आई जवानी तो पतझड़ की तरह
सावन भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
दिल का खिलौना टूट गया
तुने ( प्रेमी ने ) खेला एक खेल समझ कर
खेला और खेला, फिर मारी ठोकर
फिर भी नहीं  मालूम हुआ की
मेरा रब भी मुझसे रूठ गया
पर आज मुझे मालूम हुआ की
"राज " का खिलौना टूट गया

दिल की लगी...................

दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ    
तडपता है दिल ये तेरी याद बनकर i
रोता है मजबूर औ बेकार बनकर ii
वही राज में आज बताने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
मालूम न था की ऐसा भी होगा i
मेरा दिल मुझसे जुदा भी तो होगा ii
नफ़रत की लौ मै जलाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
होती है क्यों प्यार में रुसवाई i
होने के पहले ये मौत क्यों न आई ii
मोहब्बत की अर्थी सजाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ
ये दुनिया वालों कभी न प्यार करना i
घुट-घुट के जीना है और  इसमें मरना ii
मोहब्बत का मातम मानाने चला हूँ
दिल की लगी आज बुझाने चला हूँ

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

चेहरा

आज बहुत थक सा गया हूँ
ना जाने कितने रूप में 
छाँव में और धुप में
पहन पहन कर
बदल बदल कर
अपनों में ही खो गया हूँ
पागल सा मै हो गया हूँ  
अब तो मै क्या हूँ
और था मै क्या पहले,
कुछ भी तो याद नहीं है 
दुनिया के इस रंग मंच पे 
कितने किरदारों का
चोला मैंने पहना है
नित नई कहानी नया सबेरा 
नया मुखौटा पहना है
आज लौटना चाहा अपने
असली वाले चोले  में 
लौट न पाया यही रह गया
अपने बनाये झमेले में
कभी देखता मै आईने में
तो देख के उसमे इस चेहरे को  
पता नहीं ये कौन है कैसा 
किसका नया ये जामा है
 मेरा चेहरा कैसा था 
अब तो यह भी याद नहीं
जैसे रेतों के भव्य इमारत 
की कोई बुनियाद नहीं








दिखावा.....

दिखावा..... 
आप इस शीर्षक को देखकर चौकिये मत, इस दिखावा नाम के रोग से सब पीड़ित है..... चाहे कोई किसी भी तबके का हो या गरीब हो या आमिर , छोटा हो या बड़ा, यह रोग सब के अन्दर इस तरह से घर किये हुए है की आप जान बूझकर इसका इलाज नहीं करवा सकते, और दूसरी बात ये भी आप जानते है की ये रोग बहुत ही साधारण है और इसका इलाज संभव है फिर भी आप इसे नजर अंदाज कर देते हो, मिसाल  के तौर पर आप लोगो के बिच में से ही एक को ले लेते है.............आप और आपके दूर के दोस्त एक दिन चाय की दुकान पर जाते हो , वहां आप लोग चाय पान कर रहे होते हो, अचानक एक विशिस्ट व्यक्ति अपनी मोटर सायकल लेकर वहां से गुजरता है , यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी है की वह विशिस्ट शायद ही आपको जानता हो या पहचानता हो, लेकिन आप उसको जानते हो न की पहचानते हो, आप तुरंत बड़े स्टाइल से उस व्यक्ति को नमस्कार करते हो , जैसे की आप और वो बहुत गहरे दोस्त हो, और उस तरफ वो अपनी बुलेट पर से ही थोडा गर्दन को झुका कर आपके अभिवादन को स्वीकार करता है तो आपकी चौड़ी छाती ३२ से बढ़कर ३८ की हो जाती है और ये आप अपने दूर के दोस्त को दिखाने के लिए ही सब करते हो , जब की वास्तविकता से इसका कुछ लेना देना नहीं है ऐसा होता है दिखावे का रोग जो सब में होता है आमिर, गरीब ,छोटा, बड़ा, तो इस रोग का असर तो थोडा बहुत दीखता है भाई...........................​........................

याद आई है

आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है
तेरा आना और कानों में कोई
नए सुर  की लहर दे जाना
आखों में तेरा वो खिला चेहरा
साया बनकर रूप तेरा लायी है
तेरे होठों के लरजते पट पर
वो हंसी और वो सवरते गेशु
आज काली घटा बनकर छाई है
वो बनना सवरना और मन को लुभाना
रूठी हो सजनी तो बाँहों में भरकर
हंसी ख्वाब बनकर रातों में आई है
आज फिर वही बात याद आई है
मेरे मन को धीरे से गुदगुदाई है