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मंगलवार, 16 अगस्त 2011

आँखें......

ये आँखें बोलती हैं
सच को झूठ
झूठ को सच
सबको आँखे तोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
ग़म के हों कितने भी बादल
या ख़ुशी के हो सुनहरे पल
सारे जज्बात को अन्दर रखकर
नयन पटों को खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं
कोई रोक ले चाहे दरिया का पानी
बाँधी ना जाये आंसुओं की रवानी
मन ही मन में बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
डुबकी लगा के गहराई थहा लो
ये झील है पानी का इसमें नहा लो
देखो फिर कैसे झूठ बोलती है
ये आँखें बोलती हैं
कोई न जाना की इसमें छुपा क्या है
जुबां इनकी क्या है और भाषाएं क्या है
भेद दिलों का सबके
दो पल में खोलती हैं
ये आँखें बोलती हैं 

खुली आँखों में कई बंद राज होते है 
एक हंसी "राज" को बरबस यूँ ही 
अपने आस-पास टटोलती है
ये आँखें बोलती हैं

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