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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

इस दिवाली पर क्या लिखूं

कुछ दिन से मै सोच रहा हूँ
इस दिवाली पर क्या लिखूं i
महगाईं की मार लिखूं या
लोग पोछते पसीने की बुँदे
खड़े राशन की कतार लिखूं ii
भ्रस्टाचार या ब्यभिचार लिखूं
मानव बन गया है दानव
रावण का अवतार लिखूं ii
बच्चो का बिलखना और रोना
क्या भूखे पेट का सवाल लिखूं
फटे आँचल में से झाकती
माँ की आबरू का हाल लिखूं
दो - दो दिन बिन पानी के कैसे
गुजरे है वो सुबह शाम लिखूं
राजनीती की गन्दी सोच में
होते है जो वो काम लिखूं
नेता आये, आकर चले गए
वादे करके मुकर गए
फिर भी वोट तो उनका ही है
क्या जनता का व्यवहार लिखूं
बैठ सियासत की कुर्सी पर
मनमानी उनकी बढती गयी
जेब भरी और घर भर दिए
भरा उनका दरबार लिखूं
इतना होने पर भी अपना
भारत देश हमारा है
खुली आखो से देख तमाशा
अपना भारत देश महान लिखूं





सब कही न कही साथ छोड़ जाते है

किसी की दास्ताँ को लफ़्ज़ों में बयां करते है,
न जाने उन पर अब क्या सितम गुज़रते  है !
ख़ुशी के आंसू  भी एक ग़म की तरह होते है,
हर दिल में इक दर्द के जो कारण बनते है,
इक शायर की कलम दर्द की जुबान होती है,
हर लफ्ज़ को पिरोकर ग़ज़ल का रूप करते है,
न जाने हम क्यों लिखने पे मजबूर हो जाते है,
जब यही दर्द हद से गुज़र जाया करते है
ये मंजिल सबको किसी न किसी का दर्द सुनाती है,
ये आंसू ही तो है जो अनायास ही आँखों से छलक जाते है,
मानो ये कहानी अब हम सब पे लागू होती है,
मंजिल के सफ़र में सब कही न कही साथ छोड़ जाते है,

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

दिल के आँगन में कोई आया है

आज फिर से अपने आप को पुरानी राहों में पाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है
सपनों की दुनियां में जहाँ दो परवाने बसते थे
खिलते थे फूल वहां पर और कलियाँ चहकते थे
साथ में अपने वो बहारें आज फिर से लाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है 
उसके आने से खिल गयी जीवन की हर कली
सांसों में ऐसी खुशबू जैसे मुझे थी पहले मिली
भीगी जुल्फों में से जैसे आज सावन आया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है
नशा उसकी आँखों का था ऐसा आज तक उतरा नहीं
सारे मयखाने में उस नशे का एक बूंद का कतरा नहीं
उसे पाकर मैंने दुनियाँ की जैसे सारी जन्नत पाया है
ऐसा लगता है फिर दिल के आँगन में कोई आया है

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

गुनाह किये जाते है

आँखों के कोर से जो निकल कर मेरे आंसू
जब कपोल से लुढ़क कर मुख पर आते है
तो मानो कोई झरना ऊंची कंदराओं में से
बहकर सीधा अपने नदी से मिल जाते है
और यही आंसुओं के कुछ बूंद मिलकर
उस कड़वे स्वाद कि याद दिला जाते है
जो तुने दिए थे मुझे, और खून के आंसू
खुद आज अपने आप ही पिये जाते है
अब तो ऐसी हालत में बस रोना ही है
जो नहीं जानते प्यार वो भी किये जाते है
तेरा दिया हुआ जख्म नासूर न बन जाये
यही सोच कर उस जख्म को सिये जाते है
नादान है वो क्या जाने कि तड़प क्या होती है
और जानकर भी हम ये गुनाह किये जाते है