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बुधवार, 17 अगस्त 2011

गुनाह

सुना था की खुशियों के चमन की कल्पना हर इंसान करता है
हम भी इस ख़ुशी में शरीक हुए तो क्या गुनाह किया
इस भरी दुनियां में हर दर पे सरों को झुकते हुए देखा है
हमने रब से सर- ए -ताज की तम्मना की तो क्या गुनाह किया
हर कोई दिल में एक नफ़रत की आग लिए बैठा नजर आता है
इस जख्म- ए -दिल के लिए प्यार की दुआ की तो क्या गुनाह किया
उम्र भर बेगानों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझते रह गए
ख्वाब में खुद के लिए गर दुआ निकली तो क्या गुनाह किया
सारा आलम अपने राज को सरेआम किये बैठा है
"राज" ने राज को राज ही रहने दिया तो क्या गुनाह किया

परदेश

तुझको कैसे समझाउं,
झूठी आशा कैसे दिलाऊ
मै किस भेष में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
आया जब संदेशा उसका
पढ़ ना पाया हाल उसका
रुंधे गले से आवाज न निकली
यांदों कि आगोश में हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
रो रो के दिल अपना तुमने
हल्का तो कर लिया होगा
रो भी नहीं सका मै खुल के
क्योंकि मै बे -होश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
कसक उठी मेरे मन में एक
सपनों में पाया तुझको देख
लौट कर भी आ नहीं सकता
मै एक अंदेश में हूँ
तनहा परदेश में हूँ
ना कर मजबूर मेरी "जान"
कहना मेरा ले तू मान
तू है परेशां वहां पे
तो यहाँ खुश मै भी नहीं हूँ
क्यों कि मै परदेश में हूँ
सात समन्दर पार से
एक दिन वापस आऊंगा
खुशियाँ मिलकर बाटेंगे
तब मै यह कहूँगा कि
मै अपने देश में हूँ

गुनाह