पृष्ठ

शनिवार, 3 नवंबर 2018

किसान


कड़ी धुप में हल चलाता
ना-नुकुर न करने आता
सख्त धरा का उर चीरकर
सबके लिए अन्न उगाता
उदर सभी का वो है भरता |
और बेचारा वो क्या करता ||
फटी तौलिये को ओढ़कर
ठिठुरन से स्वयं को बचाता
पड़े अकाल प्रकृति आपदा
बैठ निरुत्तर आहें भरता
प्रलय-प्रवाह से वो है डरता |
और बेचारा वो क्या करता ||
रुखी सुखी रोटी खाके
उगा रहा है वो धन-धान
मिले पेट भर सबको भोजन
पर किस-किस ने दिया ध्यान?
शहर-गाँव का दुःख है हरता |
और बेचारा वो क्या करता ||
महंगे हो गए बीज और पानी
आगे चलेगी कैसे किसानी
लाभ नहीं है इसमें है हानि
हर किसान की यही कहानी
यह सोचकर एक निर्णय करता |
इसलिए किसान आत्महत्या करता ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें